Navaratri (9 Swaroop)

पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल में दुर्गम नामक राक्षस ने कठोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। उनसे वरदान लेने के बाद उसने चारों वेद व पुराणों को कब्जे में लेकर कहीं छिपा दिया। जिस कारण पूरे संसार में वैदिक कर्म बंद हो गया। इस वजह से चारों ओर घोर अकाल पड़ गया। पेड़-पौधे व नदी-नाले सूखने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। जीव जंतु मरने लगे। सृष्टि का विनाश होने लगा। सृष्टि को बचाने के लिए देवताओं ने व्रत रखकर नौ दिन तक माँ जगदंबा की आराधना की और माता से सृष्टि को बचाने की विनती की। तब माँ भगवती व असुर दुर्गम के बीच घमासान युद्ध हुआ। माँ भगवती ने दुर्गम का वध कर देवताओं को निर्भय कर दिया। तभी से नवदुर्गा के नौ स्वरुप के पूजन के लिए नवरात्र का शुभारंभ हुआ।

Navratri (Navratra) is a Hindu festival that spans nine nights (and ten days) and is celebrated twice every year in the month of Chaitra (Spring) and Sharad (Autumn). Apart from these, there are two lesser known navratris’ Ashadha and Magh Navratri known as Gupt Navratri. They are not as popular as Chaitra or Shardiya Navratri. It is observed for different reasons and celebrated differently in various parts of the India. However, in practice, it is the post-monsoon autumn festival called Sharada Navaratri that is the most observed in the honor of the divine feminine Devi (Durga). The festival is celebrated in the bright half of the Hindu calendar month Ashvin, which typically falls in the Gregorian months of September and October. As, each day of these nine days is devoted to nine form of supreme Goddess, three set of three days adore different facet of mother power. First three days are devoted to Supreme source of power, Goddess Durga. The Goddess is destined to all ours ills, evils and defects. Another segment of three days is devoted to Goddess of spiritual wealth, Laxmi. Goddess Laxmi is considered to have power to bless her devotees with never-ending wealth. In final segment of three days, Goddess of wisdom, Saraswati is worshipped. Goddess Saraswati brings overall success in life and a medium for spiritual enlightenment. Mother Durga is adored under nine different names on each day of Navratri. Every day she gets a new personality, nature, appearance, and obligation.

नवदुर्गा सनातन धर्म में भगवती माता दुर्गा जिन्हे आदिशक्ति जगत जननी जगदम्बा भी कहा जाता है, भगवती के नौ मुख्य रूप है जिनकी विशेष पूजा व साधना नवरात्रि के दौरान और वैसे भी विशेष रूप से करी जाती है। इन नवों/नौ दुर्गा देवियों को पापों की विनाशिनी कहा जाता है, हर देवी के अलग अलग वाहन हैं, अस्त्र शस्त्र हैं परन्तु यह सब एक हैं और सभी परम भगवती दुर्गा जी से ही प्रकट होती है। 
दुर्गा सप्तशती ग्रन्थ के अन्तर्गत देवी कवच स्तोत्र में निम्नाङ्कित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमश: दिये गए हैं :

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।।

नवरात्र हिन्दू धर्म ग्रंथ एवं पुराणों के अनुसार आदि शक्ति देवी दुर्गा की आराधना का श्रेष्ठ समय होता है। भारतवर्ष में चार नवरात्र चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ महीने की शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन के होते हैं, इन में चैत्र और आश्विन माह के नवरात्र ही मुख्य माने जाते हैं। इनको यथाक्रम वासन्ती और शारदीय नवरात्र भी कहते हैं। इनका आरम्भ क्रमश: चैत्र और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से होता है। मान्यता है कि शारदीय नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने रावण का वध किया था, इसलिए इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। 
नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियों में वृद्धि करने के लिये अनेक प्रकार के उपवास, संयम, नियम, भजन, पूजन योग साधना आदि करते हैं। नवरात्र शब्द, नव अहोरात्रों का बोध करता है। पहली तिथि से नौवी तिथि तक प्रत्येक दिन की एक देवी मतलब नौ द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप हैं-

शैलपुत्री • ब्रह्मचारिणी • चन्द्रघंटा • कुष्मांडा •
स्कंधमाता • कात्यायिनी • कालरात्रि • महागौरी • सिद्धिदात्री

नवार्ण मंत्र:
॥ॐ एं ह्रीं क्लीं चामुडायै विच्चे॥

शैलपुत्री

सम्पूर्ण जड़ पदार्थ अथवा अपरा प्रकृति से उत्पन्न यह भगवती का पहला स्वरूप हैं। मिट्टी(पत्थर), जल, वायु, अग्नि व आकाश इन पंच तत्वों पर ही निर्भर रहने वाले जीव शैल पुत्री का प्रथम रूप हैं। नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस पूजन का अर्थ है प्रत्येक जड़ पदार्थ अर्थात कण-कण में परमात्मा के प्रकटीकरण का अनुभव करना। योनि चक्र के तहत घास, शैवाल, काई, पौधे इत्यादि शैलपुत्री हैं। दुर्गाजी पहले स्वरूप में ‘शैलपुत्री’ के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएँ हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएँ हाथ में कमल सुशोभित है। यही सती के नाम से भी जानी जाती हैं।

ब्रह्मचारिणी

नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।
जड़(अपरा) में ज्ञान(परा) का प्रस्फुरण के पश्चात चेतना का वृहत संचार भगवती के दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। यह जड़ चेतन का जटिल संयोग है। प्रत्येक वृक्ष में इसे देख सकते हैं। सैंकड़ों वर्षों तक पीपल और बरगद जैसे अनेक बड़े वृक्ष ब्रह्मचर्य धारण करने के स्वरूप में ही स्थित होते है।

चन्द्रघण्टा

माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन ‘मणिपूर’ चक्र में प्रविष्ट होता है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगन्धियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियाँ सुनाई देने लगती हैं। देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी माना गया है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरन्तर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चन्द्र है। इसीलिए इस देवी को चन्द्रघण्टा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खडग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं। भगवती का तीसरा रूप है यहाँ जीव में आवाज (वाणी) तथा दृश्य ग्रहण व प्रकट करने की क्षमता का प्रादुर्भाव होता है। जिसकी अंतिम परिणिति मनुष्य में बैखरी (वाणी) है।

कूष्माण्डा

नवरात्रि में चौथे दिन देवी को कुष्माण्डा के रूप में पूजा जाता है। अपनी मन्द, हल्की हँसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्माण्डा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत्‌ हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।

इस देवी की आठ भुजाएँ हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्माण्ड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्माण्डा।

स्कंदमाता

नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। इस देवी की चार भुजाएँ हैं। यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कन्द को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है।

पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कन्दमाता। नवरात्रि में पाँचवें दिन इस देवी की पूजा-अर्चना की जाती है। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कन्द कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कन्दमाता नाम से अभिहित किया गया है। इनके विग्रह में भगवान स्कन्द बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। यह कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है।

कात्यायनी

माँ दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन ‘आज्ञा’ चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। नवरात्रि में छठे दिन माँ कात्यायनी की पूजा की जाती है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी सहजता से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं।

कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। इनका गुण शोधकार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो जाते हैं। यह वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं। माँ कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिन्दी यमुना के तट पर की गई थी। इसीलिए यह ब्रजमण्डल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यन्त भव्य और दिव्य है। यह स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं। इनकी चार भुजाएँ हैं। दायीं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। माँ के बाँयी तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है।

कालरात्रि

माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। नवरात्रि के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन ‘सहस्रार’ चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। कहा जाता है कि कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्माण्ड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं।

इनके शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। अन्धकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है। इस देवी के तीन नेत्र हैं। यह तीनों ही नेत्र ब्रह्माण्ड के समान गोल हैं। इनकी साँसों से अग्नि निकलती रहती है। यह गर्दभ की सवारी करती हैं। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। यानी भक्तों हमेशा निडर, निर्भय रहो। इनका रूप भले ही भयंकर हो परन्तु यह सदैव शुभ फल देने वाली माँ हैं। इसीलिए यह शुभंकरी कहलाईं।

महागौरी

माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णतः गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गई है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र श्वेत हैं। इसीलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा कहा गया है। इनकि चार भुजाएँ हैं और वाहन वृषभ है इसीलिए इनको वृषारूढ़ा भी कहा गया है ।

इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। ऊपर वाले बाएँ हाथ में डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनकी पूरी मुद्रा बहुत शान्त है।

सिद्धिदात्री

माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। मान्यता है कि इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है। इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। नवरात्र में यह देवी का अन्तिम स्वरुप हैं। हिमाचल के नन्दापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है। माना जाता है कि इनकी पूजा करने से बाकी देवियों की उपासना भी स्वंय हो जाती है।